दहेज़ प्रथा क्या है
दहेज़ वह प्रथा है
जिसमें शादी के समय लड़की
के परिवार से लड़के के
परिवार को धन, गाड़ी,
सोना-चांदी, इलेक्ट्रॉनिक सामान और अन्य वस्तुएँ
दी जाती हैं। यह प्रथा भारत
के कई हिस्सों में
फैली हुई है, विशेषकर बिहार और झारखंड जैसे
राज्यों में इसकी जड़ें गहरी हैं।
दहेज़ प्रथा के दुष्परिणाम
·
अत्याचार
और हिंसा: दहेज़ की मांग पूरी
न होने पर बहुओं को
जलाना, मारना-पीटना और मानसिक यातना
देना आम हो गया
है।
·
गरीब
परिवारों
पर बोझ: जिनके पास साधन नहीं हैं, वे अपनी बेटियों
की शादी के लिए कर्ज़
और अपमान झेलते हैं।
·
आत्महत्या
और सामाजिक विघटन: कई माता-पिता
दहेज़ न जुटा पाने
के कारण आत्महत्या कर लेते हैं।
· लड़कियों को बोझ समझना: समाज बेटियों को बोझ मानता है, जबकि वही जीवन को आगे बढ़ाती है
बेटी और पिता का संवाद
बेटी:
"पापा, लोग हमें बोझ क्यों कहते हैं? अगर हम लड़कियाँ न
होतीं तो यह दुनिया
कैसे आगे बढ़ती? लड़कों को भी हमने
ही जन्म दिया है।" पिता: "बेटी, मेरे लिए तू कभी बोझ
नहीं है। बेटियाँ अनमोल होती हैं। वे दर्द सहकर
भी चट्टान की तरह खड़ी
रहती हैं। जिनके पास बेटियाँ नहीं होतीं, वे अभागे होते
हैं। मैं खुद को बहुत भाग्यशाली
मानता हूँ कि मुझे तेरे
रूप में अनमोल खज़ाना मिला है। हर जन्म में
मैं यही चाहूँगा कि मुझे बेटी
का पिता बनने का सौभाग्य मिले।"
एक सच्ची घटना
एक गरीब पिता ने अपनी बेटी की शादी कम उम्र में कर दी। शादी के समय लड़के वालों ने भारी दहेज़ लिया। शादी के बाद भी वे लगातार और पैसे की मांग करने लगे। जब पिता उनकी मांग पूरी न कर सका, तो ससुराल वालों ने बेटी को जलाने की कोशिश की। पड़ोसियों ने आग बुझाई और उसे अस्पताल पहुँचाया, लेकिन वह बच नहीं सकी। पिता फूट-फूटकर रोता रहा और खुद को कोसता रहा कि काश उसने दहेज़ प्रथा का विरोध किया होता। उस हादसे के बाद उसने संकल्प लिया कि अब कभी दहेज़ नहीं देगा और समाज में इस प्रथा के खिलाफ आवाज़ उठाएगा।
निष्कर्ष
दहेज़ प्रथा हमारे समाज को अंदर से
खोखला कर रही है।
इसे खत्म करने के लिए हमें
अपने घर से ही
शुरुआत करनी होगी। जब हम दहेज़
को न स्वीकारेंगे, तभी
समाज में यह अभिशाप समाप्त
होगा।


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